
श्रीदेवी की मासूमियत और कमल हासन का दर्द बना सिनेमा की मिसाल
भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जो सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। श्रीदेवी और कमल हासन की 1983 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘सदमा’ (Sadma) ऐसी ही एक क्लासिक फिल्म है, जिसने अपने भावनात्मक अंत से दर्शकों को झकझोर कर रख दिया था।
फ़िल्म की कहानी जो सीधे दिल में उतर जाती है
‘सदमा’ एक ऐसी युवती की कहानी है, जो एक दुर्घटना के बाद मानसिक रूप से बचपन की अवस्था में लौट जाती है। श्रीदेवी ने इस किरदार को इतनी संवेदनशीलता से निभाया कि दर्शक उनके हर भाव से जुड़ गए। कमल हासन ने एक ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया जो इस बच्ची जैसी महिला की देखभाल करता है, उसकी हिफ़ाज़त करता है और धीरे-धीरे उससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है।

कहानी उस मोड़ पर पहुंचती है जब श्रीदेवी का इलाज पूरा हो जाता है और उसे सब कुछ याद आ जाता है — लेकिन अब वह कमल हासन को पहचानती नहीं। रेलगाड़ी के दृश्य में कमल हासन का वो बेबस दर्दभरा अभिनय, जिसमें वे रोते हुए स्टेशन पर भागते हैं, आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे भावनात्मक दृश्यों में से एक माना जाता है।
दर्शक रह गए थे ‘सदमे’ में
फ़िल्म के अंत ने दर्शकों को गहरे सदमे में डाल दिया। बहुतों के लिए यह अंत असहनीय था। सिनेमाघरों में कई लोग रो पड़े थे। उस समय के समीक्षकों ने लिखा था —
“यह फ़िल्म सिर्फ देखी नहीं जाती, इसे महसूस किया जाता है।”

‘सदमा’ ने यह साबित किया कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि भावनाओं की गहराई तक उतरने वाली कला है।
अभिनय जिसने सिनेमा का स्तर बढ़ा दिया
इस फ़िल्म में श्रीदेवी और कमल हासन दोनों ने अपने करियर का शायद सबसे यादगार प्रदर्शन दिया। श्रीदेवी ने अपने चेहरे के भाव और मासूमियत से दर्शकों के दिल जीत लिए। कमल हासन ने एक साधारण इंसान के दर्द को इतनी गहराई से निभाया कि दर्शक खुद उस स्थिति में महसूस करने लगे। उनका यह अभिनय आज भी फिल्म स्कूलों में उदाहरण के रूप में सिखाया जाता है।
फ़िल्म का असर और विरासत
‘सदमा’ तमिल फिल्म Moondram Pirai का हिंदी रीमेक थी, लेकिन हिंदी में भी यह उतनी ही लोकप्रिय हुई।
समय बीत गया, मगर यह फ़िल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। इसका संगीत, इसका संवाद और सबसे बढ़कर इसका भावनात्मक असर – सब कुछ आज भी दर्शकों के मन में जिंदा है।





