कैसे हुई कांवड़ यात्रा की शुरुआत, कौन थे पहले कांवड़िया ?

Sawan kanwar yatra 2025 : देवों के देव महादेव का सबसे प्रिय महीना सावन है, जिसकी शुरुआत 11 जुलाई से हुआ ये महीना 9 अगस्त को समाप्त होगा। सावन शुरु होते ही सड़कों पर ‘बम बम भोले’ और ‘हर हर महादेव’ की गूंज उठती है, जब भगवान शिव के भक्त एक साथ कांवड़ लेकर निकल पड़ते हैं उस साधना की ओर जिसकी नींव विश्वास और तपस्या से रखी जाती है। शिवभक्तों के लिए ये महीना एक साधना की तरह है। सावन के महीने में लोग शिव मंदिर जाते हैं, घरों में शिवलिंग की पूजा-अर्चना करते हैं। वहीं कई शिवभक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लाने निकलते है। हर साल आप भी सड़कों पर ऐसे की कांवड़ियों की भीड़ देखते होंगे, लेकिन क्या आप इसके पीछे का इतिहास जानते हैं? चलिए जानते हैं कि आखिर कांवड़ की शुरुआत कहां से और कैसे हुई थी?
क्या है कांवड़ यात्रा ?
सबसे पहले जान लें, कांवड़ यात्रा होती क्या है और इसका क्या महत्व है? सावन के महीने में लाखों शिवभक्त नदियों खासकर गंगा से पवित्र जल लेकर, उसे ‘कांवड़’ में भरकर कई किलोमीटर पैदल चलकर शिव मंदिरों तक पहुंचते हैं। वहां जाकर भगवान शिव पर जल चढ़ाते हैं। इसे ही कांवड़ यात्रा कहा जाता है। श्रद्धा, सेवा और संकल्प का ये सफर सिर्फ यात्रा नहीं, आस्था का उत्सव है।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत किसने की? कई कहानियां, कई मान्यताएं
कांवड़ यात्रा से जुड़ा एक सवाल हमेशा चर्चा में रहता है, सबसे पहले ये यात्रा किसने शुरू की? दिलचस्प बात ये है कि इस सवाल का कोई एक ठोस जवाब नहीं है, क्योंकि भारत के अलग-अलग हिस्सों में इस परंपरा को लेकर अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। हर मान्यता अपने-आप में आस्था और इतिहास की मिसाल है। आइए जानते हैं इन कहानियों को विस्तार से।
1. परशुराम और ‘महादेव’ की कथा
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में ‘पुरा महादेव’ नाम का एक प्राचीन शिवधाम है। मान्यता है कि भगवान परशुराम ने गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर यहां भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। परशुराम को शिवभक्त माना जाता है और उनके इस कर्म को कई लोग कांवड़ यात्रा की पहली झलक मानते हैं। आज भी लाखों श्रद्धालु उसी मार्ग से जल लेकर पुरा महादेव पहुंचते हैं।
2. भगवान श्रीराम और बैद्यनाथ धाम की यात्रा
कुछ मान्यताओं के अनुसार भगवान राम को पहला कांवड़िया कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने बिहार के सुलतानगंज से गंगाजल लेकर देवघर (बैद्यनाथ धाम) तक लंबा सफर तय किया था, और वहां शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। राम के इस कार्य को भक्ति, सेवा और पुत्रधर्म से जोड़कर देखा जाता है।
3. श्रवण कुमार की सेवा और त्याग की मिसाल
एक और मशहूर मान्यता श्रवण कुमार से जुड़ी है, जिन्हें भक्ति और सेवा का प्रतीक माना जाता है। कथा के अनुसार त्रेता युग मे श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले जाकर गंगा स्नान कराया, और वापसी में गंगाजल साथ लाकर उन्हें तर्पण किया। यही वजह है कि कांवड़ को कंधे पर उठाना सेवा और समर्पण का प्रतीक भी माना जाता है।
4. रावण और समुद्र मंथन की घटना
कुछ मान्यता रावण से जुड़ी है, जो भगवान शिव का परम भक्त था। समुद्र मंथन के दौरान जब हलाहल विष निकला, तब उसे पीने के कारण भोलेनाथ का कंठ नीला हो गया। कहते हैं कि रावण ने गंगाजल लाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक किया, ताकि विष का प्रभाव कम हो सके। इसी कारण उन्हें पहला ‘भक्ति भाव से कांवड़ चढ़ाने वाला’ भी माना जाता है।
5. देवताओं द्वारा गंगाजल अर्पण की कथा
कुछ मान्यताएं बताती हैं कि जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान किया, तब केवल रावण ही नहीं, बल्कि देवतागण भी गंगाजल और पवित्र नदियों का जल लाकर शिव पर चढ़ाने लगे। उनका उद्देश्य विष के प्रभाव को शांत करना था। कई विद्वान मानते हैं कि यहीं से ‘कांवड़ यात्रा’ जैसी परंपरा की नींव पड़ी।
इन सभी कथाओं में समर्पण, श्रद्धा और सेवा भाव एक समान है। कांवड़ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि हमारे पौराणिक इतिहास, परंपरा और लोक मान्यताओं का जीवंत उत्सव है।
5 प्रकार की होती है कांवड़ यात्रा
सामान्य कांवड़ यात्रा
सामान्य कांवड़ यात्रा की बात करें तो ये कांवड़िएं जहां चाहे वहां आराम कर सकते हैं। सामाजिक संगठन से जुड़े लोग ऐसे कांवड़ियों के लिए पंडाल लगाते हैं। पंडाल में भोजन और विश्राम करने के बाद दोबारा कांवड़िए अपनी यात्रा शुरू करते हैं। आराम करने के दौरान इस बात का ख्याल रखा जाता है कि कांवड़ को स्टैंड पर रखा जाए ताकि ये जमीन से न छुए।
झांकी कांवड़ यात्रा
इस कांवड़ यात्रा की बात करें तो कुछ शिव भक्त झांकी लगाकर कांवड़ यात्रा करते हैं। ऐसे कांवड़िए 70 से 250 किलो तक की कांवड़ लेकर चलते हैं। इन झांकियों में शिवलिंग बनाने के साथ-साथ इसे लाइटों और फूलों से सजाया जाता है। इसमें बच्चों को शिव बनाकर झांकी तैयार की जाती है।
डाक कांवड़ यात्रा
डाक कांवड़ यात्रा को थोड़ा कठिन माना जाता है क्योंकि इसे 24 घंटे में पूरी करने की पंरपरा है। इस यात्रा में कांवड़ लाने का संकल्प लेकर 10 या उससे अधिक युवाओं की टोली वाहनों में सवार गंगा घाट जाती है। यहां ये लोग दल उठाते हैं। इस यात्रा में शामिल टोली में से एक या दो सदस्य लगातार नंगे पैर गंगा जल हाथ में लेकर दौड़ते हैं। एक के थक जाने के बाद दूसरा दौड़ लगाता है। इसलिए डाक कांवड़ को सबसे मुश्किल माना जाता है।
दंडवत कांवड़ यात्रा
शिवभक्त कांवड़ि इस यात्रा में अपनी मनोकामना पूरा करने के लिए दंडवत कावड़ लेकर चलते हैं। वैसे तो ये यात्रा 3 से 5 किलोमीटर तक की होती है लेकिन इस दौरान शिव भक्त दंडवत ही शिवालय तक पहुंचते हैं। और गंगा जल शिवलिंग पर चढ़ाते हैं।
खड़ी कांवड़ यात्रा
शिवभक्तों के लिए यह यात्रा काफी कठिन होता है। इस कांवड़ यात्रा की खास बात ये होती है कि शिव भक्त गंगा जल उठाने से लेकर जलाभिषेक तक कांवड़ को अपने कंधे पर रखते हैं। आमतौर पर इस यात्रा में कांवड़ को शिव भक्त जोड़े में ही लाते हैं।
कांवड़ को कंधे पर उठाने की परंपरा क्यों है?
कांवड़ को जमीन पर नहीं रखा जाता। भक्त इसे पूरे सफर में कंधे पर ही उठाए रखते हैं। ऐसा क्यों? माना जाता है कि श्रीराम और श्रवण कुमार ने कांवड़ अपने कंधे पर उठाई थी, जो सेवा और समर्पण का प्रतीक माना जाता है। यह बताता है कि भक्त अपने अहंकार को त्याग कर पूरी तरह भोलेनाथ के प्रति समर्पित हो जाता है। कंधे पर भार उठाना, पापों से मुक्ति और मोक्ष की भावना से भी जुड़ा हुआ है।
कांवड़ यात्रियों के लिए कुछ पारंपरगत नियम
बिना नहाए कांवड़ को नहीं छूते
तेल, साबुन, कंघी का प्रयोग नहीं करते
सभी कांवड़ यात्री एक-दूसरे को भोला या भोली या बम कहकर बुलाते हैं
ध्यान रखना होता है कि कांवड़ जमीन से न छूए
डाक कांवड़ यात्रा में शरीर से उत्सर्जन की क्रियाएं तक वर्जित होती हैं
कहा जाता है कि जो श्रद्धा से कांवड़ यात्रा करता है, उसकी हर मनोकामना भोलेनाथ पूरी करते हैं। इसके पीछे सिर्फ पूजा नहीं, बल्कि स्वयं को एक तपस्वी की तरह प्रस्तुत करना होता है। बिना जूते-चप्पल, बिना आराम किए चलना इस समर्पण की सबसे बड़ी मिसाल है।
यह लेख पौराणिक कथाओं और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है। इसका उद्देश्य किसी भी भावना को ठेस पहुंचाना नहीं, बल्कि सिर्फ जानकारी साझा करना है।